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शब्दाथ
48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
पास ३० धर्म सो सुनकर नि० अवधारकर ह० हृष्ट तु० तुष्ट जा यावत् हि. आनंदपामे ति )
आ० आदान प० प्रदक्षिणा क करके ए. ऐसा 40 वोले सं. संयम से भं. भगवन् कि क्या । फल त० तप से भ० भगवन् किं क्याफल त० तब थे० स्थविर भ० भगवन्त है. उन स० श्रमणो पासक को ए० ऐसा व० बोले सं० संयम से अ० आर्य अ• अनावफल त० तप से वो० कर्म छेदना व
थेराणं भगवंताणं अतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ट तुट्ठ जाव हियया,तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेंति करेइत्ता एवं वयासीसंजमेणं भंते किं फले तवेणंभंते किं फले तएणं थेरा __ भगवंतो ते समणोवासए एवं वायसी संजमेणं अजो अणण्हयफले,तवे वादाणफलोतएणं
" प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालापसादजी .
भावार्थ
हुवे और स्थविर भगवंत को सीन आदान प्रदक्षिणा करके ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! तप व संयम का क्या फल ! तब श्रमणोपासक को स्थविर भगवंत ऐसा कहने लगे कि संयम से मात्रा का निरुधन होता है अर्थात् संयम पालने वाले को नविन कर्म का आगमन नहीं होता है. वैसे ही पूर्वकृत कर्मों को छेदन करना यह कपका फल है. तब श्रमणोपासक बोले कि अहो भगवन् ! यदि संयम का आश्रय निरोध रूप व तपका कर्मक्षयरूप फल है तो संयम व तपके आराधन करने वाले किस कारन से देव होते हैं ? तब उन स्थविर भगवंत की पास रहने वाले स्थविरों ने इस प्रश्न का उत्तर