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शब्दार्थ १०प० परंपर प० पर्याप्त अ० अपर्याप्त उ० उपयोगयुक्त उ० उपयोग रहित त उन में जे० जो उ० उपयोग वाले | |ore जा० जानते पा० देखते हैं से० अथ ते• इसलिये तं• वैसे ही ॥ १८ ॥ ५० समर्थ भ० भगवर अ०१०
अनुत्तरोपपातिक दे० देव त• वहां रहे हुवे इ० यहां रहे हुवे के केवली की स० साथ आ. अलाप। सं० संलाप क० करने को है ० हां प० समर्थ के० कैसे जा० यावत् प० समर्थ अ० अनुत्तरोपपातिक
वण्णगा ते न जाणंति न पासंति । एवं अणंतर, परंपर, पजत्त, अपज्जत्ताय, उवउत्ता अणुवउत्ता, ॥ तत्थणं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति, से तेण?णं तंचव ॥१८॥ पभूणं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा. इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावंवा संलावंवा करेत्तए ? हंता पभू । से केणटेणं जाव पभूणं अनुत्तरोवधाइयादेवा जाव करेत्तए ? गोषमा ! जणं अणुत्तरोवधाइया देवा तत्थगया जान सकते हैं अर्थात् उपयोगवन्त अमायी सम्यग्दृष्टि परंपरा उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त देव जान सकते हैं व देख} 50 सकते हैं. इसलिये ऐसा कहा गया है॥१८॥अहो भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकदेव वहां रहे हुवे ही यहां मनुष्य लोक में
रहे हुवे केवली की साथ आलाप संलाप करने को क्या समर्थ हैं ? हां गौतम ! वे देवों यहां पर 1 केवली की साथ आलाप संलाप करने को समर्थ हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से वे समर्थ हैं ? अहो
पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ११
पांचवा शतक का चौथा उद्देशा >>
भावार्थ