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कवि० विपुल अ० असन पा० पान खा. खादिम सा० स्वादिम आ० आस्वादते वी० भोमवने प्र० परसते १५० जीमते वि०विचरतेहैं जे० जीमकर भु० जीमे पीछे आ आचमन किया चो० शुद्ध हुवे प०बहुत शुद्धहुने ।
पव्वजाए पव्वइएवियणं समाणे इमं एथारूवं अभिग्गहं आभिगिण्हइ, कप्पइ मे जाव- ४३४ ज्जीवाए छटुं छ?णं जाव आहारित्तए तिकटु इमं एयारूवं आभिग्गहं आभिगिण्हइ, आभिगिण्हइत्ता, जावज्जीवाए छटुं छटेणं अनिक्खित्तणं तबो कम्मेणं उड़े बाहाओ पणिज्झिय २ सूराभिमुहे आयावण भमीए आयावेमाणे विहरइ ॥ २६ ॥ छट्टस्स वियणं पारणयसि, आयावण भूमीए पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता, सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं गहाय, तामलित्तीए नयरीए उच्चनीय मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुयाणस्स भिक्खायरियाए
अडइ, अडइत्ता सुद्धोयणं पडिग्गहेइ २ त्ता तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेइ, वार्थ
ऐमा अभिग्रह किया कि मुझे निरंतर छठ छठ का तप करना कल्पता है. इसत्तरह अभिग्रह ग्रहण करके ऊंचे बाहु रखकर सूर्याभिमुख आतापना भूमि में आतापना लेते हुवे. विचरते हैं ॥ २६ ॥ छठ के पारणे के दिन आतापना भूमि से आकर स्वयमेव काष्ट पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नमरी में उच्च नीच व मध्यम कुल के घर समुदाय में भिक्षाचरी के लिये परिभ्रमण करते हैं और शुद्धोदन (पकेहुवे चांवल) लेकर इक्कीस वार) .
40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी -
• प्रकायक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी जालामसादजी .