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शब्दार्थ
पृथक् आ० आहार ज० अघन्य दि० दिवस पृथक् उ० उत्कृष्ट दिवस पृथक् ॥ ३६ ॥ ० वैमानिक को ठ० स्थिति भा० कहना उ० उश्वास अ० जघन्य मु० मुहूर्त पृथक् उ० उत्कृष्ट ते० तेत्तीस प० पक्ष आ. आहार ज. जघन्य दि० दिवस पृथक उ० उत्कृष्ट ते० तेत्तीसवर्ष स. सहस्र से० शेष तं०११ तसे जा० यावत् णि निर्जरे ए० ऐसे ठि० स्थिति आ• आहार भा० कहना ठि• स्थिति ज० जैसे ठि० वि णवरं उस्तासो जहण्येणं मुहुत्त पुहुत्तस्स, उक्कोसेणवि मुहुत्त पुहुत्तस्स आहारो जहण्णेणं दिवस पुहुत्तस्स उक्कोसेणवि दिवस पुहुत्तस्स सेसं तंचेव ॥ ३६ ॥ वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वाओहिया, उस्सासो जहण्णेणं मुहुत्त पुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं ॥ आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहण्णेणं दिवस पुहत्तस्स उक्कोसेणं
तेत्तीसाए वाससहस्साणं, सेसं तंचेव जाव णिजरेति. एवं ठिती आहारो य भाणियव्वो. *उश्वास जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक मुहूर्त आहार की इच्छा जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक दिन में होवे ॥ ३६ ॥ वैमा- भावार्थ
निक देवताओं की स्थिति जघन्य एक पल्योपमकी उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की श्वासोश्वास जघन्य प्रत्येक मुहर्त में लेवे उत्कृष्ट ३३ पक्ष में लेवे, आभोग निवर्तित आहार की इच्छा जघन्य प्रत्येक दिन में होवे.
उत्कृष्ट तेत्तीस हजार वर्ष में होवे शेष चलित कर्म की निर्जरा करे वहांतक सब अधिकार पाहिले जैसे। | कहना. सब जीवों की स्थिति स्थिति पद से जानमा व आहार पन्नवणा मूत्रके पाहिले आहार उद्देशे में जैसा *
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *