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शब्दार्थ
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488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8-81
स्थितिपद में त० तैसे भा० कहना स० सर्व जी० जीव का आ० आहार ज० जैसे प० पन्नवणा में ५० प्रथम आ० आहार उद्देशे में त० तैसे भा० कहना ए. यहां से आ० लेकर णे. नारकी भं• भगवन आ० | आहार के अर्थी जा० यावत् दृ० दुःखपने भ० वारंवार परिणमें ॥ ३७॥ जी० जीव भं भगवन् किं. क्या आ० आत्मारंभी प० परारंभी उ० उभयारंभी अ० अनारंभी गो० गौतम अ० कितनेक जी. आ आत्मारंभी प० परारंभी उ० उभयारंभी णो० नहीं अ० अनारंभी अ. कितनेक जीव णो० नहीं है ठिती जहा ठितीपदे तहा भाणियव्वा. सव्व जीवाणं आहारोय जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए तहा भाणेयव्यो । एत्तो आढत्तो णेरइयाणं भंते आहारट्ठी जाव दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ॥ ३७ ॥ जीवाणं भंते किं आयारंभा, परारंभा,
तदुभयारंभा, अणारंभा? गोयमा!अत्थेगइया जीवा आयारंभावि,परारंभावि तदुभयारंभावि, जानना. इसी तरह चौविस दंडक का कहदेना अहो भगवन् ! नारकी को आहार की इच्छा होती है ? यावत दःखरूप वारंवार परिणमे. इस में पहिले नारकी की वक्तव्यता कही वह आरंभ पूर्वक होती है इस लिये आरंभका निरूपण करते हैं॥३७॥अहो भगवन् ! क्या जीव स्वतः घात करनेवाले हैं, व अन्य की पास घात करानेवाले हैं स्वतः घात करानेवाले व अन्य की पास करानेवाले हैं, या दोनों प्रकार की घात से रहित अनारंभी हैं ? अहो गौतम कितनेक जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी भी हैं, आत्मपगरंभी भी हैं परंतु अनारंभी है।
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पहिला शतक का पहिला उद्देशा 438380