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शब्दार्थ) चारणा करते चं चंद्र लेश्या को १० पश्चिम से आ० आवर्तकर पु० पूर्व में वी० जावे त. तब ५०*
पश्चिम में चं० चंद्र उ० देखावे पु० पूर्व में रा. राहु ए. ऐसे ज० जैसे ५० पश्चिम में दो० दो आ. आलापक त० तैमे दा० दक्षिण उ० उत्तर में दो दो आ• आलापक भा० कहना ए. ऐसे उ० ईशान कौन में दा. नैऋस में दो० दो आ० आलापक ए. ऐसे दा० अग्नि उ० वायव्य में दोदो आ०आलापक भा० करना जा. यावत् त० तब उ० वायव्य में चं० चंद्र उ० देखावे दा० अग्नि में राहु ज. जब राहू आगच्छमाणेवा गच्छमाणेवा, विउबमाणेवा, परियारेमाणेवा, चंदलेस्सं पञ्चच्छिमेणं आवरेत्ताणं पुरच्छिमेणं वीईवयइ, तदाणं पञ्चच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पुरच्छिमेणं राहू।। एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्चच्छिमेणय दो आलावगा भणिया तहा दाहिणेणय उत्तरेणथ दो आलावगा भाणियव्वा, एवं उत्तर पुरच्छिमेणं, दाहिण पच्चच्छिमेणय दो आलावगा
भाणियव्या, एवं दाहिण पुरच्छिमेणं, उत्तर पञ्चच्छिमेणय दो आलावगा भाणियव्या भावार्थ | क्रेय करते व परिचारणा करते चंद्रकी कान्ति को पश्चिम में ढककर पूर्व में राहू जाता है तब पश्चिम में
चंद्र दीखता है और पूर्व में राहू दीखता है. जैसे पूर्व पश्चिम के दो आलापक कहे वैसे ही दक्षिण उत्तर के दो आलापक जानना. ऐसे ही उत्तर पूर्व [ ईशान ] व नैऋत्य और अग्रि व वायव्य के दो २ आलापक जानता. यावत् वायव्य कौन में चंद्र दीखता है और अग्नि कौन में राहू दीखता है. आते, जाते वैक्रेय
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी -
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *