________________
૧૭૮
- आया णियमं दसणे, दसणेवि णियमं आया ॥ आया भंते ! णेरइयाणं दसणे अण्णे
णेरइयाणं दंसणे ? गोयमा ! आया णेरइयाणं णियमं दसणे, दसणेवि णियमं आया, एवं जाव वेमाणियाणं निरंतरं दंडओ ॥ ७ ॥ आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी, अण्णा रयणप्पभा पुढवी ? गोयमा ! रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय णो आया सिय अवत्तव्वं आतातिय णो आतातिय से केण?णं भंते ! एवं जाव
वुच्चइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय णो आया सिय अवत्तव्वं भावार्थ
तक कहना. बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय यावत् वैमानिक तक सब दंडक का नारकी जैसे कहना. ॥ ६ ॥ अहो । E भगवन् ! क्या आत्मा दर्शन है या अन्य कोई दर्शन है ! अहो गौतम ! आत्मा निश्चय ही दर्शन होता
है और दर्शन अवश्यमेव आत्मा होता है. अहो भगवन् ! नारकी का आत्मा दर्शन है या अन्य दर्शन है ? अहो गौतम ! नारकी का आत्मा नियमा दर्शन होता है और दर्शन नियमा आत्मा होता है. ऐसे में ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. ॥ ७ ॥ अब अन्य प्रकार से आत्मा का स्वरूप कहते हैं. अहो । भगवन् ! क्या आत्मा रत्नप्रभा है या अन्य रत्नप्रभा है अर्थात् सद्रूप (विद्यमान रूप) रत्नप्रभा है अथवा असद्रूप [ अविद्यमान रूप] रत्नप्रभा पृथ्वी है ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी क्वचित् भात्मा
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी :
*प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *