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शब्दार्थ
१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
सा० मुख उ० भोगवता वि० विचरताहूं तं० इसलिये जा. यावत् अ मैं हि हिरण्य से व. वृद्धिपाताई जायावत् अ बहुत वृद्धिपाताई मे मेरे सा० सामन्त रा० राजा वि० वश व० हैं ता० तावत् मे मुझे स. श्रय के. काल पा. प्रभात में जा. यावत् ज० सूर्य स० बहत लो० लोहेके पात्र क. कडाह क. कडुछा ता० तापम के भ० भांडे घ. बनवाकर सि. शिवभद्र कु० कुमार को र० राज्य पर ठा० स्थापकर ते. उस स० वहत लो. लोहे के पात्र क. कडाह क. कडुछी ता० तापस के भं० भांडे
वड्ढामि ॥ तं चेन जाव आभिवामि ॥ जाव चमे सामंत रायाणो विवसे वहति ताव तामे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंतं सुबहुं लोहीलोहकडाह कडुच्छुयं तंपिय । तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठावेत्ता तं सुबहुं लोहीलोहकडाह कडुच्छुयं
तंपिय तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूल वाणपत्था तावसा भवंति तंजहा वृद्धि पाता हूं बहुत धन, धान्य, कनक रत्न यावत् प्रधान द्रव्य से बहुत वृद्धि पाता हूं. इसका क्या कारन .. है ? मैने जो पुर्व भवमें जो कुछ दान तप किया था उसका मुखरूप फल भोगता हुवा विचर रहा हूं. इसलिये जहां लग मेरे धन धान्य वृद्धि पाते हैं यावत् सामंत राजा वगैरह मेरे वश में वर्तते हैं वहांलग प्रभात होते यावत् ज्वलंत सूर्य उदित होते तापस योग्य उपकरण,लोहेका तवा, कुडछी वगैरह उपकरणों बनवाकर शिवभद्र कुमार को राज्यासन पर बैठाकर उस उपकरणों, लोही व कुडछी ग्रहण कर गंगा नदी के किनारे।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ