________________
शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ |
8 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाषजी
पूववत् ॥ १५ ॥ जी० जीव भ० भगवन किं० क्या सो० वृद्धिहा सा०ने वोल हीन होने वाले सो० वृद्धि व हीन होने वाले ले वृद्धि व हीन नहीं होने वाले ए० एकेन्द्रिय त० तीसरे प० पद में से०
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
इयं कालं व ंति ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ठसमया, केवइयं कालं अवट्टिया ? गोयमा ! जहण्णं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा ॥ १५ ॥ जीवाणं भंते ! किं सोवचया, सावचया, सोवचयसाक्चया, निरुत्रचय निरवच्या ? गोयमा ! जीवा नो सोचचया, नो सावच्या, नो सोवचयसावच्या, निरुवचय निरवचया ॥ एगिं दिया तइय पदे, सेसा जीवा चउहिं पएहिं भाणियव्वा || १६ || सिद्धाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! सिद्धा सोबचया, नोसावचया, नो सोवचयसावचया, निरुवचय {हैं. उनका अवस्थितकाल जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ मासका है ॥ १५ ॥ अहो भगवन्! क्या जीव सोवचय-नविन उत्पन्न {होकर बढने वाले सावचय-कालकर हीन होनेवाले, सोवचयसाचचय य कुछ बढ़नेवाले कुच्छ हीन होनेवाले और क्या निरुवचय निरवचय हीन व बढनेवाले नहीं हैं? अहो गौतम ! समुच्चय जीव निरुवचयनिरवचयवाले हैं अर्थात इस में कोई नविन जीव उत्पन्न नहीं होता है वैसे ही कोई जीव उस में से विनाश नहीं पाता है. इस में कऐन्द्रिय { में सोवचय सावचय का भांगा पाता है और शेष सब दंडक में चारोंही भांगे पाते हैं. ॥ १६ ॥ सिद्ध भगवंत में नविन उत्पन्न होकर वृद्धि होवे वैसा सोवचय और बढे नहीं व हीन नहीं होवे वैसा निरुवच |
७२८