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शब्दाथा
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुवदेवऩहायजी ज्वालाप्रसादजी *
ति०
{वि० विचरते हैं ॥ ३ ॥ त० तत्र ते० वे अ० अन्यतीर्थिक, जे० जहां थे० स्थविर भ० भगवन्त ते० [तहां उ० आकर ते ० उन थे० स्थावर भ० भगवन्त को ए० ऐसा व० बोले तु० तुम अ० आर्य त्रिविध ति० त्रिवि से अ० असंयति अ० अविरति अ०रहित ज० जैसे स० सातवा शतक में वि० दुसर झाणा वगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा जाव विहरति ॥ ३ ॥ तणं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी तुज्झेणं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजय, अविरय, अप्पार्डहय जहा सत्तमसए चिइओ उद्देसओ जाव एगंतबालायावि भवह || तरणं थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केणं कारणेणं अजो अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय पास ध्यानासन से ध्यान करके संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे || ३ || उस समय में वे अन्य तीर्थिकों उन स्थावर भगवंत की पास जाकर ऐसा बोले कि अहो आर्यो ! तुम तीन करन तीन योग से अविरति, असंयाते व प्रत्याख्यान से पाप कर्म का नाश नहीं करनेवाले हो वगैरह सातवा शतक का दूसरा उद्देशा जैसे कहना यावत् तुम एकान्त बाल हो. फीर स्थविरोंने पूछा कि अहो आर्यो ! हम किस कारन से तीन करन तीन योग से अविरति असंयति यावत् एकान्तं बाल हैं ? फीर अन्यतीर्थिक बोलने लगे कि अहो आर्यो ! तुम अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त भोगते हो और अदत्त का?
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