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शब्दार्थ ऐसे दि० दिशि वि० विदिशि में ॥ ३ ॥ अ० है भ० भगवन् दी द्वीप प्रत्यायक ई० अल्प हं • हां अ०
है अ० है भं० भगवन् सा० समुद्र संबंधी ई० अल्प है. हां अ० है जं. जब भ० भगक्न् दि० द्वीप प्रत्ययिक ई० अल्प पु० स्नेहमय वायु त• तब सा० समुद्र का ई० अल्प पु० स्नेहमय या वायु णो० नहीं च्छिमेणवि ईसि तयाणं पुरच्छिमेणवि ईसि ॥ एवं दिसासु, विदिसासु, ॥ ३ ॥
अत्थिणं भंते दीवच्चया ईसिं ? हंता अत्थि ॥ अत्थिणं भंते सामुद्दिया ईसिं ? हंता । 4. अत्थि ॥ जयाणं भंते ! दिविच्चया ईसिं पुरेवाया, तयाणं सामुद्दिया
- वि ईसिं पुरेवाया, जयाणं सामुद्दियाईसिं तयाणं दीविच्चया ईसिं ? णोइणटे सभावार्थ
हैं तब पूर्व में भी वैसे ही वायु चलते हैं, यों चारों दिशि विदिशि का जानना ॥ ३॥ अहो भगवन् ! द्वीप संबंधी स्नेहमय वायु क्या होता है ? हां गौतम ! द्वीपसंबंधी स्नेहमय वायु होता है. वैसे ही समुद्र संबंधी भी स्नेहमय वायु होता है. अहो भगवन् ! जब द्वीपसंबंधी स्नेहमय, पथ्य वायु, मंद वायु, व महा वायु चलते हैं. तब क्या लवण समुद्र संबंधी उक्त प्रकार के वायु चलते हैं ? अथवा जब समु वायु चलते हैं तब क्या द्वीप के वायु चलते हैं ? अहो गौबम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् !
यह अर्थ किस कारन मे योग्य नहीं है ? अहो गौतम ! उक्त द्वीप व समुद्र ऐसे दोनों प्रकार के वायु में - 19 परस्पर विपरीतपना है अर्थात् ऐसा उन वायुओं का स्वभाव ही रहा हुवा है. अथवा लवण समुद्र में सोलह
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी 40
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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