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अभिलावेणं जहा अणुओगदारे छ णामं तहेव गिरवसेसं भाणियन्वं जाव सेतं साण्णवाइए भावे ॥ सेवं भंते भंतेत्ति॥सत्तरमस्स सयस्स पढमो उद्दसो सम्मत्तो॥१७॥१॥ से णूणं भंते! संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे धम्मेट्रिए असंजयअविरय अपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मए अहम्मेट्ठिए, संजयासंजए धम्माधम्मेट्ठिए ? हंता गोयमा! संजयविरय जाव धम्माधम्मेट्रिए ॥१॥ एएसिणं भंते ! धम्मंसिवा
भावार्थ
2 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी +
भगवन् ! औदयिक भाव किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! औदयिक भाव के दो भेद कहे हैं ! औदायक व उदयनिष्पन वगैरह जैसे अनुयोग द्वार में छ नाप कहे हैं. वैसा सब यहां पर विशेषता रहित कहना. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं यह मतरहवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७॥१॥
पहिले उद्देशे के अंत में भाव का कथन किया. उन भाववाले संयति होते हैं. इसलिये आगे संयति का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! प्रत्याख्यान से पाप कर्म को नष्ट करनेवाले संयति विरति क्या धर्म में स्थित कहा जाता है ? प्रत्याख्यान से पाप कर्म नहीं बनेवाला अविरति असंयति क्या अधर्म में स्थित कहा जाता है ? अथवा मयतासंयति धर्माधर्म में स्थित कहा जाता है ?.हां गौतम! संयति धर्म में स्थित यावत् संयतासंयति धर्माधर्म में स्थित कहे जाते हैं ॥१॥हो भगवन ! इन धर्म, अधर्म व धर्माधर्म में
प्रकाशक-रामाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.