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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अयप्पओगेणं उववजति, णो परप्पओगेणं उववज्जति ॥ ७ ॥ असुरकुमाराणं भंते ! कहं उववजति ? जहा णेरइया तहेव गिरवसेसं जाव णो परप्पओगंणं. उववजंति, एवं एगिदियवजा जाव वेमाणिया. एगिदिया, एवं चेत्र णवरं चउंसमइओविग्गहो सेवं तंचेव ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ जाव विहरइ ॥ पणवीसइमसयस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५॥ ८॥ . भवासिद्धिय गेरइयाणं भंते ! कह उवजंति ? गोयमा ! से जहा. णामए पवए पत्रमाणे या परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं परंतु परप्रयोग से नहीं उत्पन्न होते हैं. ॥ ७॥ अहो भगवन् ! असुरकुपार कैसे उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे नारकी का कहा से ही परमयोग से नहीं उत्पन्न होते हैं वहां तक विशेषता रहित कहना ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर वैमानिक पर्यंत कहमा. एकेन्द्रिय का वैसे ही कहना परंतु विग्रहगति में चार समय कहना शेष वैसे ही अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कह कर भगवान गौतम विचरने लगे यह पच्चीसवा शतक का
आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २५ ॥८॥ | अहो भगवन् ! भवतिदिक नारकी कैसे उत्पन्न होये ! अहो मौतम ! जैसे आठवे. उद्देशे में कहा
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.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी.
42 अनुवादक-नाल