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शब्दार्थ
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ।
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गो० गौतम उ० उत्पन्न होवे से वह त. तहां अ० अर्चनीय वं० चंदनीय पू० पूजनीय स सत्कार करने . योग्य स• सन्मान करने योग्य दि० दिव्य स सस स सत्य अवपात स० सनिहित पा० प्रातिहार्य भव्होके ततहां से अ. अनंतर उ० मरकर सि सिझे ब. बझे जा. यावत अं अंतकरे हैं. हां मिसिने जा यावत् अं• अंतकरे ॥ १॥ दे देव भं भगवन् म० महर्द्धिक ए. ऐसे जा० जावत् वि० विशरीरी म०
अणंतरं चयं चइत्ता विसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा ? हंता गोयमा ! उक्वज्जेजा ॥
सेणं तत्थ अच्चिय बंदिय पइय सकारिय सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोबए है सणिहियपाडिहेरेयावि भवेज्जा ? हंता भवेज्जा ॥ सेणं भंते ! तओहितो
अणंतरं उव्वटित्ता सिझेज्जा बुझेजा, जाव अंतकरेजा ? हंता सिझेजा जाव
अंतं करेजा ॥ १ ॥ देवेणं भंते ! महिढीए एवं चेव जाव विसरीवंदनीय, सत्कार योग्य, सन्मान योग्य, मेवा योग्य, दीव्य, सत्य, स्वप्नादि से सत्य सेवा बतानेवाला व पूर्व संगति से पास रहकर कार्य करनेवाला देवाधिष्टित क्या होता है ? हां गौतम ! वह नाग ऐसा ही होता है. अहो भगवन् ! क्या वह नाग मरकर अंतर रहित मनुष्य गति में जाकर सीझ बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? हां गौतम ! वह सीझे बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ॥ १॥ अहो भगवन् ! महर्दिक यावत् महा ऐश्वर्यवंत देव दो शरीरी मणि (पृथ्वीकाया विशेष ) में क्या उत्पन्न होता है ? अहो ।
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
भावार्थ
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