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दुक्खे, णो परकडे दुक्खे, णो तदुभयकडे दुक्खे, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति परकडं दुक्खं वेदेति तदुभयकडं दुक्खं वेदेति ? गायमा! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, णो परकडं दुक्खं वेदेति, जो " तदुभयकडं दुक्खं वेदेति, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ५॥ जीवाणं. भंते ! किं अत्तकडा वेदणा, परकडा वेदणा, तदुभयकडा वेदणा ? गोयमा ! अत्तकडा वेदणा गो परकडा वेदणा, णो तदुभयकडा वेदणा ॥ एवं जाव वेमाणियाणं
पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र
सत्तरहवा शतक का चौथा उद्देशा
भावार्थ
जानना. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जीवों को क्या सतः का किया दुवा दुःख है परका किया हुका दुःख है. या उभय का किया हुवा दुःख है ? अहो गौतम ! जीवों को स्वतः का किया हुवा दुःख है परंतु अन्य का किया व उभय का किया हुवा दुःख नहीं है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं पर कृत दुःख वेदते हैं या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? अहो गौतम ! जीव . आत्मकृत दुःख वेदते हैं परकृत व उभय कृत दुःख नहीं वेदते हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! जीवों को क्या आत्मकृत वेदना, परकृत वेदना व उभयकृत वेदना है. ? अहो भगवन् ! जीवों को आत्म कृत वेदना है परंतु पस्कृत व उभय कृत वेदना नहीं है ऐसे ही वैमानिक पर्यन चौवीस है "
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