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शब्दाथ 4
सिं० सिंघाण वं० वमन पू० पूय सु. शुक्र सो० शोणित से उ० उत्पन्न हुधा अ० अमनोज्ञ दु. दुप मु० मूत्र पु० पूतिक पु०विष्टा से पु० पूर्ण मि० मृतगंध उ० उश्वास अ.अशुभ नि निश्वास उ० उद्वेगवाला वी० बीभत्स अ० अल्प काल के ल० लघुस्वभाववाले क. कलमल अ० अवस्था दु० दुःख ब० बहुजनको १ सा० साधारण प० क्लेश कि० संपूर्ण दुःख वाला अ० अज्ञानजन से० सेवते स० सदैव सा० साधु से ग० । निंदनीय अ० अनंत संसार व वधारनेवाला क० कटुक फ० फल विपाकनाला चु० तृणपूलीवत् अ० नहीं ।
सुक्कासवा, सोणियासवा, उच्चारपासवणखेलसिंधाणवंतपूयसुक्कसोणियसमुब्भवा, अमणुष्णदुरूवमुत्तपूइयपूरीसपुण्णा मियगंधुस्सास असुभनिस्सास उव्वेयणगा, वीभत्था, अप्पकालिया, लहूसगा, कलमलाहियासदुक्खबह जणसाहारणा, परिकिले
सकिच्छदुक्खसब्भा, अबुहजणसेविया सदा साहुगरहणिज्जा, अणंतसंप्तारवडणा, भावार्थ | पिता ! मनुष्य के कापभोग अशुचितारे, अशाश्वत, वमन, पित्त, श्लेष्म, शुक्र, व रुधिर के आश्रित हैं..
लघुनीत, बडीनीत, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, पूति, शुक्र व रुधिर से उत्पन्न होते हैं. अमनोज व दूरूप मूत्र व पुरुषविष्टा से परिपूर्ण है, मृतक शरीर की गंध समान हैं, अशुभ उश्वास अशुभ निश्वास
से उद्वेग उत्पन्न करनेवाले हैं, अल्प काल में नष्ट होनेवाले हैं, भोगों की लघुता करनेवाले हैं शरीर के all व वाहिर नीकले हुवे द्रव्यों दृष्टिगोचर होने से ग्लानि करनेवाले हैं, परक्लेश के कारण भूत, वहुत कठिनता से
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी gr
*.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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