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शब्दार्थ
*ते. उस घाघ्राणेन्द्रिय योग्य पो० पुद्गल को को. गुठलीमात्र जा. यावत् उ० बताने को गो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ से वह ते० इसलिये जा. यावत् उ० बताने को ॥१॥जी० जीव भं० भगवन् ..
० चैतन्य जी० चैतन्य जी० जीव गो० गौतम जी. जीव जा. यावत् नि. निश्चय जी० चैतन्य जी चैतन्य नि० निश्चय जी० जीव ॥ २॥ जी० जीव भं० भगवन ने० नारकी ने० नार
है यमा ! केइ तसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्रिमायमवि जाव उवदंसित्तए ! णो इण. | टे समटे ॥ सेतेणट्रेणं जाव उवदसित्तए ॥१॥ जीवेणं भंते ! जीवे जीवे जीवे? गो- .
। यमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीववि नियमा जीवे ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! नेरइए । भावार्थ जम्बूद्वीप मे विस्तृत होती है ? हां भावन् ! वह गंध संपूर्ण जम्बूद्वीप में विस्तृत होती है. तब अहो
गौतम! उस गंघमें से वेरकी गुटली प्रमाण यावत् यूका प्रमाण पुद्गलोंको पृथक कर बतानेको क्या समर्थ है? अहो भगवन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वैसे बताने को समर्थ नहीं है. इसी तरह जीव सुख दुःख स्पर्शता है परंतु पृथक् करके बताने को समर्थ नहीं होता है ॥१॥ सुख दुःख का भोक्ता जीव होने से जीव संबंधी प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! जो जीव है वह क्या चैतन्य है और जो चैतन्य है सो जीब है ? अहो गौतम! चैतन्य व जीव परस्पर अविनाभूत है, अर्थात् जीव विना चैतन्य नहीं व चैतन्य विना जीव नहीं, इसलिये चैतन्य है वह जीव है और जीव है वह चैतन्य है॥२॥अहो भगवन् ! क्या जीव है सो नारकी है व
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमालक ऋषिजी
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *