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.... णवरं णाणासंठिया, सरीरोगाहणा पढमएसु पन्छिनएसुतिसुः गमएसु जहणणं अंगुलस्स ..:
असंखजइभागंउकोसेणं सातिरगंजोअणसहस्सं, मज्झिमएसु तहेव जहा पुढवीकाझ्याण संवेहो द्विती- जाणियन्वा ॥ तईयगमए कालादेसणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तर वाससयसहस्सं एवइयं एवं संबेहो
उवउंजिऊण भाणियन्वो ॥ १६ ॥ जइ वेइंदिएहिंतो उबवज्जति किं पजत्तवेईदिए. है . हिंतो उववज्जति अपज्जत्तवेइंदिएहिंतो उववजति ? गोयमा ! पजत्त वेइंदिएहितो
उबवज्जति, अपजत्तवेईदिएहितोत्रि उववंजंति ॥ वेइंदिएणं भंते ! जे भविए पुढवी भावार्थ जैसे गमा कहना. परंतु वनस्पतिकाया का संस्थान विविध प्रकार का कहा है. शरीर की अवगाहना पहिले
के तीन और छेल्ले के तीन में जंघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट एक हजार पोजन से कुच्छ अधिक की कही है. बीच के तीन गमाकी पृथ्वीकाया से कहना. तीसग गया में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट एक लाख अठाइस हमार (पृथ्वी के चार भव के ८४०००
और वनस्पति के चार भव के ४००००) इतना काल गतिमामात करे. यों उपयोग सहित इस. का भी 17 संवेध कहना ॥ १६ ॥ यदि इन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो त्या पर्याप्त इन्द्रिय या अपर्याप्त इन्द्रियमें से ।
.48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.