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पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवी) मूष 418
मागंदियपुत्ता ! असंखेजइ भागं आहारति अणंतभागं णिजरेति ॥ १९॥ चक्कियाणं भंते ! केइ तेसु णिज्जरापोग्गलेसु आतइत्तएवा जाव तुयटित्तएवा ? णो इण? समढे अणाहारमेयं वुइयं समजाउसो ! एवं जाव वेमाणियाणं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्ठारसमस तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥१८॥३॥ . . तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं क्यासी- अह भंते !
पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पाणाइवाए विरमणे जाव मिच्छादसण व अनंत भागकी निर्जरा करते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! उन निर्जरित पुद्गलों में कोई बैठने को यावत् सोने को क्या समर्थ है ? यह अर्थ योग्य नहीं है अहो श्रमण ! यह अनाधार कहा गया है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह आठारहवा शतक का ती उइंशा संपूर्ण हुआ. ॥ १८ ॥३॥ ०
० है तीसरे उद्देशे में निर्जग की व्याख्या कही. चौथे उद्देशे में पाप की व्याख्या करते हैं. उस काल उस इसमय में राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पुछने लगे कि अहो भगवन् ! प्राणातिपात मृपावाद यावत् मिथ्या दर्शन शल्य, माणा
न अठारहवा शनकका चाथा उद्दशा 4
थावाने
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