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गरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी,
ठाति २ त्ता आयतकण्णायतं उसु करेइ, करेइत्ता उड्डे वेहासं उविहति २ ता सेणूणं मार्गदियपुत्ता ! तस्स उसुस्स उड्डूं वेहासं उब्बीढस्स समाणस्स एयतिविणाणत्तं, जाव तंतं भाव परिणमंतिविणाणत्तं?हंता भगवं? एयतिविणाणत्तंजाव परिणमंति विणाणत्तं से तेणटेणं मागंदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ-जावतं तं भावं परिणमंति विणाणत्तं ॥१७॥नेरइयाणं भंत! पावे कम्मे जेय कडे एवं चेव एवं जाव वेमाणियाणं ॥१८॥णरइयाणं भते! जे पाग्गले आहार
त्ताए गेण्हति तेसिणं मंते ! पोग्गलाण सेयकालंसि कइभागंआहारेति कइभागं णिज्जरेंति? किये हैं और जो जीवों पापकों करेंगे उस में भिन्नता है ? अहो माकंदिय पुत्र ! जैमे कोइ पुरुष धनुष्य उठाता है, धनुष्य उठाकर एक स्थान करता है और कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींच कर बाण को आकाश में छोडता है. इस तरह आकाश में वाण जाते क्या वह वाण चलता है वही भेद है ? हां भगरन् ! वहीं भेद है इसलिये अहो माकंदिय पुत्र ! ऐश कहा गया है कि उस २ भानको परिणमते हैं वही भिन्नता है ॥ १७ ॥ जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ॥१८॥ अहो भागवन् ! नरकी जो पुद्गल आहार पने ग्रहण करते हैं उन में से आगामिक काल में कितने पुद्गलों का आहार करते हैं और कितने पुद्गलों की निर्जरा करते हैं ? अहो माकांदिय पुत्र! असंख्यात भागका आहार करते हैं।
भावार्थ
प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*
rammarnamammam