________________
सूत्र
शब्दार्थ
भगवन् किं. क्या पु० स्पीक करते हैं अ० नहीं स्पर्शी क० करते हैं जा० यावत् नि निर्व्याघात छ. पछदिशा में वा० व्याघात प० प्रत्यय सि. कदाचित् ति तीन दिशा में सि० कचित् च. चार दिशा
में सि० कदाचित् पं० पाच दिशा में सा० वह भं• भगवन् किं. क्या क. कीहुइ क० करता है अ० नहीं की क० करता है गो० गौतम क० कीहुइ क० करता है नो नहीं क० नहीं कीहुइ क० करता है सा० वह भं० भगवनू किं० क्या अ० स्वतःने क० कीहुइ क० करते हैं प० दूसरेने क० कीहुइ क० करते हैं
पट्रा कज्जइ अपट्रा कज्जइ ? जाव णिव्वाघाएणं छहिसिं वाघायं पडच्च सियतिदिर्स सिय चउदिसिं सियपंचदिसि ॥ साभंते ! किं कडा कज्जइ अकडा कज्जइ ? गोयमा!
कडा कज्जइ नो अकडा कज्जइ ॥ सा भंते ! किं अत्तकडा कजइ, परकडा कज्जइ भावार्थ
भगवन् ! जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करता है ? हां गौतम ! जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करे. अहो भगवन् ! क्या उस क्रिया को स्पर्श मे करे या विना स्पर्श से करे ? अहो गौतम ! स्पर्श कर करे. निर्व्याघात आश्रित छ दिशा को स्पर्शकर करे अर्थाः जहां अलोक दूर है वैसे स्थान छ दिशा को स्प- शकर करे और व्याघात आश्रित लाक के अंत में होवे अर्थात् उपर नीचे के लोकांत में होवे तो वह पांच दिशा, मध्य के एक कोन में आया हो तो वह चार दिशा और उपर नीचे के लोकांत के कोन में आया होवेतो वह तीन दिशा को स्पर्शकर क्रिया करता है. अहो भगवन् ! क्या वह क्रिया की हुइ लगती
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी जालाप्रसादजी *