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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
पुरच्छिमिल्ल, एवं एएणं अभिलावणं जहेव उद्देसओ जाव लोग चरिमंतेत्ति, सम्वत्थ - कण्हलेस्सेसु उववातेयव्वो ॥ २ ॥ कहिणं भंते ! कण्हलेस्से अपज्जत्तग वायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पं.? गोयमा ! एवं एएणं अभिलावणं जहा ओहिंय उद्देसओ जाव तुलटितीयत्ति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढ़मं सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा ॥ वितियं एगिदिय सेढिसयं सम्मत्तं ॥ ३४ ॥ २ ॥ * ॥ एवं गील लेस्सहिंवि ॥ ततियं सयं ॥ ३४ ॥ ३ ॥
काउलेस्मेहिंवि सयं ॥ एवंचेव; चउत्थं सयं ॥ ३४ ॥ ४ ॥ रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत में यों इस अभिलाप से जमे लोक चरिमांत पर्यन्त अभिलाप कहा वैसे ही कहना ॥१॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया के स्थान कहां कहे हैं? अहो गौतम ! इस अभिलाप मे जैसे औधिक उद्देशा कहा वैसे ही तुल्य स्थिति पर्यन्त कहना. अहो भगवन ! आपके वचन सत्य हैं. यों इम अभिलाप से जैसे पहिला श्रेणी शतक के अग्यारह उद्देशे कहे वैसे ही दूसरे शतक के अग्यारह उद्देशे कहना. यह दूसरा श्रेणी नामक प्रति शतक संपूर्ण हुवा ॥३४॥२॥
ऐसे ही नील लेश्या का कहना. यों तीसरा प्रति शतक संपूर्ण दुवा ॥ ३४ ॥३॥ x . कापोत लेश्या का भी वैसे ही कहना. यह चौथा प्रति शतक संपूर्ण हवा ॥ ३४ ॥ ४॥ +
•प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी *
भावाथे
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