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शब्दार्थयुक्त जा. यावत् पु० पृथ्वी शिला पट्टक ॥ ७५ ॥ त. तर से वह ज० जमाली अ० अनगार अ..
कदाचित् पं०पांच अअनगार सशत स.साथ सं० रहे हुवे पु. अनुक्रम से चविहार करते गा ग्रामानु ग्राम दु० जाते जे० जहां सा० श्रावस्ती न० नगरी जे० जहां को० कोष्टक चे चैत्य ते. तहां उ आकर अ० यथा प्रतिरूप उ० आज्ञा ओ० ग्रहण कर सं० संयम से त० तप से अ० आत्मा को भा. भावते वि.० विचरते हैं ॥ ७६ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर अ० एकदा पु० अनुक्रम से च०
चंपा णामं णयरी होत्था वण्णओ पुण्णभद्दे चेइए वण्णओ जाव पुढवी सिलापट्टओ ॥ ७५ ॥ तएणं से जमाली अणगारे अण्णयाकयाई पचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुडे पुन्वाणुपुत्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ २ त्ता
संजभेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ७६ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे भावार्थ
काल उस समय में चंपा नामक नगरी थी पूर्णभद्र चैत्य था यावत् पृथ्वी शिलापट्ट था ॥ ७५ ॥ उस
काल उस समय में एकदा जमाली अनगार पांचसो अनगार सहित परवरे हुवे पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुलग्राम विहार करते हुवे श्रावस्ती नगरी के कोष्टक चैत्य में यथामतिरूप अवग्रह याचकर संयम व
तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ।। ७६ ॥ और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पूर्वानी
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g+
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*