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शब्द
पंचमांग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 4280
चलते मा० यावर मु० मुख से वि० विचरते जे० जहां चं. चंपा न० नगरी जे. जहां पु० पूर्णभद्र चे० चैत्य ते. तहां उ• आकर अ० यथा प्रतिरूप उ० आज्ञा उ० ग्रहणकर सं० संयम से त० तप से अ० आत्मा को भा० भावते वि० विचरनेलगे ।। ७७ ॥ त० तब तक उन ज. जमाली अ० अनगार को ते उम अ० अरस वि० चिरस अ० अन्त प० प्रान्त लु० रूक्ष तु. तुच्छ का. काल व्यतीत हुआ सी0 शीत पा० पान भो० भोजन से अ० एकदा म० शरीर में वि. विपुल रो० रोग पा० उत्पन्न हुवा उ०
अण्णयाकयाइं पुवाणुपुट्विं चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे वा जेणेव चंपा. णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ २ ता अहापडिरूवं उग्गहं
उगिण्हइ २ ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ७७ ॥ तएणं तस्स । - जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहिय, विरसेहिय, अंबेहिय, पंतेहिय, लूहेहिय, तुच्छे-..
हिय, कालाइक्वंतहिय, पमाणाइकंतेहिय, सीएहिं पाणभोअणेहिं अण्णयाकयाई विचरते चंपा नगरी के पूर्ण भद्र चैस में यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावत हुवे विचरने लग ॥ ७७ ।। उस समय उन अरस, विरस, अंत प्रांत, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रांत, प्रमाणाति, क्रांत, व शीत पान भोजन से जमाली अनगार के शरीर में विपुल रोग उत्पन्न हुचा. उज्जल, अतिप्रचल प्रकर्ष, कटुक, चंड, दुःखदायी, विषम, सीब, व नहीं सहन हो सके वैसा पित्तज्जर शरीर में उत्पमहवा और
30 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 982
भाघार्थ
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