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शब्दाथ
ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती )
दि• विस्तार हि हृदय वाला जे जहां सः श्रमण भ. भगवान महावीर ते. तहां उ० आकर म: श्रमण भ. भगवन्त महावीर को नि तीनवार आ० आदान प० पदाक्षिणा क० करके जा० यावत प. पृजनलगे ॥ ५ ॥नः श्रमण भ. भगवान महावीर व बदक क० कात्यायन गोत्रीय को एक ऐमा व. बाले त म को ख खंदक मासात्यी ण नगरी में पिपिंगलक निग्रंय वे० वैशालिक मा० मुनने वाला इ. इस अ. प्रश्न से मा० मागध कि क्या म. अंतमहित लोक अ० अनंत
तेणेव उवागच्छदत्ता, तमणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ जाव पन्जवासइ ॥ १५ ॥ खंदयाइ समणे भगवं महावीर खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी सेणणंतमं खंदया ! सावत्थीए जयराए पिंगलएणं नियंठेणं बेसालिसावएणं इणमक्खेवं, मागहा ! किं सअंतेलोए, अणंतेलोए एवं तंचेव जाव जेणेव मम अंतिपित बनाहुआ जहां श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी थे वहां आये : आकर श्री श्रमण भगवंत महावार को तीन आदान व प्रदक्षिणा की, यावत् सेवाभक्ति की ॥ १० ॥ तब श्री श्रयण भगवंत महावीर स्वामीने कात्यायन गोत्रीय खंदक को पूछा कि अहो खंदक ! श्रावस्ती नगरी में महावीर के वचन सुनने का रसिक पिंगल निर्ग्रन्यने ऐसा पूछा कि अहो मागध : अंत महित लोक है या अंत रहित लोक है यावत का किम मरण से जीव संमार की वृद्धि व हानि करता है ? उम का जनर नहीं दे भकनमे न शीता मेरी
दुसरा शतक का पहिला उद्देशा><at
भावार्थ
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