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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी -
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के किस अ० अर्थ से भं० भगवन् ए० ऐसा वु० कहाजाता है स० स्वयं भं० भंड की अ० गेवषणा करे नो० नहीं प० दूसरे के भं० भंड की अ० गवेषना करे गो० गौतम त० उस को ए० ऐसा भ० होवे [णो० नहीं मे० मेरे हि० चांदी सु० सुवर्ण कं० कांस्य दू० दृष्य वि० विपुल घ० धन क० कनक र० रत्न म० मणि मो० मौक्तिक सं० शंख सि० शिला ५० प्रवाल २० रक्त रत्न वगैरह सं० प्रधान सा० धन म० ममत्व भाव पु० फीर अ० अपरिज्ञात भ० होने से वह ते० इसलिये गो० गौतम ए० वेसइ, नो परायगं भंड अणुगवेसइ ? गोयना ! तस्तणं एवं भवइ णोमेहिरण्णे णोमे सुवणे, गोमे कंसे, नोमे दूसे विउलधण-कणग-रयण-मणि- मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल- रत्तअपना भंडोपकरण की गवेषणा करता है परंतु अन्य के भंडोपकरण की गवेषणा नहीं करता है. अहो भगवन् ! उस श्रावक को क्षयोपशम से ग्रह हुवे शीलव्रत से अनुव्रत, गुणव्रत, रागादिक से विरति, नवकारसी पौरुषी व पौषधोपवास से क्या भंड अभंड होते हैं ? हां गौतम ! उस के भंड अभंड होते हैं. अहो भगवन् ! जब उप श्रावक को भंड अभंड होते हैं, तब ऐसा किस कारन से कहाजाता है कि वह अपनी वस्तु की गवेषणा करता है परंतु अन्य की वस्तु की गवेषणा नहीं करता है ? अहो गौतम ! उस श्रावक को सामायिक में ऐसे परिणाम वस्त्र, विपुल धन, कनक, विद्रुम, शीलास्फटिक और प्रधानं द्रव्य मेरे नहीं है. फीर
हैं कि चांदी, सुवर्ण, कांस्य,
रत्न,
मणि, मौक्तिक, शंख, शील, मवाल,
* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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