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शब्दार्थ भं० भगवन् किं. क्या इ० ईर्यापथिक कि० क्रिया का करे पु० पृच्छा गो. गौतम संसंवृत अ०अनगार
जा. यावत् इ० ईर्यापथिक कि० क्रिया क० करे णो नहीं सां० सांपरायिक कि क्रिया मे• वह के.ols V कैसे भं० भगवन् ज० जैसे म. सातवा उद्देशा में जा. यावत् अ० यथासूत्र री चाले से वह ते० इस
लिये णो नहीं सां० सांपरायिक कि० क्रिया करे ॥२॥क कितने प्रकार की भ० भगवन् जो योनि है इरियावहिया किरिया कजइ पुच्छा ?गोयमा!संवुड जाव तस्सणं इरियावाहिया किरिया है कज्जइ; णो संपराइया किरिया कज्जइ ॥ से केण?णं भंते ! जहा सत्तमसए सत्तमु
' देसए जाव सेणं अहासुत्तमेव रीयइ से तेण?ण जाव णो संपराइया किरिया कजइ १ है ? अहो गौतम ! उन को ईर्यापथिक क्रिया लगती है परंतु सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है, अहो । भगवन् ! किस कारन से ईर्यापथिक क्रिया लगती है परंतु सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ? अहो! गौतय ! इस का विस्तार पूर्वक विवेचन सातवे शतक के सातवे उद्दशे में कहा है यावत् कषाय रहित संवृत अनगार सूत्रानुसार विचरते हैं इसलिये सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ॥२॥ अहो भगवन् !
योनि के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! योनि के तीन भेद कहे हैं. शीत, ऊष्ण, व शीतोष्ण. 63 पहिली नरक से तीसरी नरक तक शीत योनि, चौथी पांचवी में शीत व ऊष्ण छठी सातवी में ऊष्ण,
चार स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, असंही तिर्यंच पंचेन्द्रिय व असंज्ञी मनुष्य में तीनों प्रकारकी तेउकायमें ऊष्ण'
*- पंचमा विवाह पण्णात (भगवती ) सत्र 4088
१४ दशा शतक का दूसरा उद्दशा 88
भावार्थ