SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दार्थ १४१२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनिश्रा अमोलक ऋषिजी संवत जा. यावत् सं. मांपरायिक क्रिया क. करे गो० गौतम ज. जिस के को क्रोध मा० मान मा० * माया लो० लोभ ज जैसे म० सातवा शतक में प० पहिला उद्देशा में जा० यावत् उ० उत्सूत्र से री०३ जावे से वह ते. इसलिये जा० यावत् सं० सांपरायिक क्रिया क• करे ॥ १ ॥ सं० संवृत अ० अनगार ० संयोग रहित में ठि० रहकर पु० आगे के रू० रूप निः देखते जा० यावत् त० उस को से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ संवुडस्स जाव संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्सणं कोह माण माया लोभा एवं जहा सत्तमसए पढमुंहेसए जाव सेणं उर: त्तमेव । रीयई से तेणटेणं जाव संपराइया किरिया कजइ ॥ १ ॥ संवुडस्सणं भंते ! अण गारस्स अवीइपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाई निझायमाणस्स जाव तस्सणं भंते ! किं अनगार कषाय के उदय से मार्ग में रहे हुवे रूपको अबलोकता सांपरायिक क्रिया करता है परंतु ईर्यापथिक क्रिया नहीं करता है. अहो भगवन्! यह किम तरह है ? अहो गौतम ! जिस को क्रोध, मान, माया व लाम होते हैं उन को सांपरायिक क्रिया लगती है और जिस को क्रोधादि नहीं है उन को ईपिथिक क्रिया लगती है यावत् उत्सूत्र से चलता है इसलिये सांपरायिक क्रिया लगती है इम का विस्तार पूर्वक कथन सातवे शतक के प्रथम उद्देशे में कहा है ॥१॥ अहो भगवन् ! कषाय रहित आगेके रूप देखनेवाले यावत् ऊंचे के रूप देखनेवाले संवृत अनगार को क्या ईर्यापथिक क्रिया लगती है या सांपरायिक क्रिया लगती प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy