________________
मूत्र 808
काए अण्णे काए ? गोयमा ! आयावि काए, अण्णेवि काए ॥ १४ ॥ रुवी भंते ! काए, अरूबी काए ? गोयमा ! रूवीवि काए, अरूबीवि काए, एवं एकेके पुच्छा ?
गोयमा! सचित्तेवि काए अचित्तेविकाए, जीवेवि काए अजीवेवि काए ; जीवाणवि काए, भावार्थ-कायावाले को प्रायः मन होता है इस लिये काया का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या आत्मा काया है.
या अन्य काया है ? अहो गौतम ! आत्मा भी काया होवे क्षीर नीर की तरह, अनि लोहपिंड की तरह, इस में काया से स्पर्श हुवा आत्मा संवेदन करे. और जो काया करे वह आत्मा भवांतर में वेदे इमलिये आत्मा काया भी है और अन्य भी काया है यदि अत्यंत अभेद होवे सब शरीर के अंग का छेदन करने से आत्मा को छेदन का प्रसंग उपस्थित होवे, वैसे ही शरीर के दाह से आत्मा को दाह होवे और ऐसा होने से परलोक अभाव प्रसंग आजावे इस से आत्मा से अन्य भी काया है. कितनेक आचार्य का ऐसा भी कथन है कि कार्माण शरीर की अपेक्षा से आत्मा काया है. क्यों कि कार्माण शरीर व संसारी जीव का परस्पर अव्यभिचार है और उदारिकादि शरीर की अपेक्षा से अन्य काया , है क्यों की जब वे शरीर भिन्न होते हैं तब आत्मा इन से पृथक् होता है ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! रूपी काया है या अरूपी काया है ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर की अपेक्षा से रूपी काया है और कार्माण शरीर की अपेक्षा से अरूपी काया है. अहो भगवन् ! सचित्त काया है या अचित्त काया है ?
488b48 तेरहवां शतकका सातवा उद्देशा +4884