________________
४
ब्दार्थ143 रा. राजगृह में जायावत् एक ऐसा व वाले सं० अंतर सहित भ. भगवन् णे. नारकी उ०+
न उत्पन्न होते हैं नि० निरंतर णे. नारकी उ० उत्पन्न होते हैं मो० गौतम सं० अंतर सहित • नारकी १० उत्पन्न होते हैं णि निरंतर णे नारकी उ० उत्पन्न होते हैं ए. ऐसे अ० असुर कुमार ए. ज. जैसे गं० गांगेय त• तैमे दो० दो दै० दंडक जा० यावत् सं० अंतर सहित वे. वैमानिक च• चवते
रायगिहे जाव एवं बयासी-संतरं भंते ! रइया उववजति, पिरंतरं णेरइया उत्रनजंति ? गोयमा ! संतरंपि णेरइया उववजंति, णिरंतरंपि णेरइया उववजंति, ॥ एवं असुरकुमारावि ॥ एवं जहा गंगेए तहेव दो दंडगा जाव संतरंपि वेमाणिया चयंति
48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488
तेरहना शतकका छठा उद्देशा
भावाथे पांचवे उद्देशे में नरक की वक्तव्यता कही. और छठे उद्देशे में उम का ही कथन कहते हैं. राजगृह
नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार कर गौतम स्वामी पुछने ला कि अहो भगवन ! नेरये अंतर सहित उत्पन्न होते हैं या निरंतर उत्पन्न होते हैं ? अहो गीतम! अंतर
सहित भी नेरये उत्पन्न होते हैं और निरंतर भी नरये उत्पन्न होते हैं. जैसे नरक की वक्तव्यता कही 3वैसे ही असुरकुमारादि सत्र की नववे शतक के वतीमवे उद्देशे में गांगेय अनगार की वक्तव्यता में उत्पत्ति
उर्तन भेद के दो दंडक क वैसे ही यहां कहना यावत् अंतर सहित वैमानिक चवते हैं और निरंतर भी