________________
सूत्र
भावार्थ
ॐ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
पहले से सुक्कलेस्सोए जवाइओ तियभंगो, अलेस्सहिं जीवे सिद्धेहिं तियभंगों, मणुसु छब्भंगा, ॥ सम्मदिट्ठीहिं जीवादिय तिओ भंगो, विगलिदिएमु छन्भंगा, मिच्छदिट्ठीहिं एगिदियवज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छादिट्ठीहिं छन्भंगा, संजएहिं जीवादिओ तियभंगो, असंजएहिं एर्गिदियवज्जो तियभंगो, संजया संजएहिं तियभंगो, जीवादिओ नोसंजय नोअसंजय नोसंजया संजय जीव सिद्धेहिं तियभंगो ॥ सकसाईहिं{जीव सदैव बहुत अवस्थित रहते हैं इसलिये एक भांगा. परंतु उपशम श्रेणी से भ्रष्ट होते अकषायी बन कर पुनः सकषायी बनते हैं इस से दूसरा भांगा, और उपश्रेणी से बहुत जीव पडके सकषायपने को प्राप्त होते हैं इसलिये तीसरा भांगा. नरकादिक में पूर्वोक्त तीन भांगे. एकेन्द्रिय में एक भांगा. क्रोध कषाय { के दूसरे दंडक में जीवपद व एकेन्द्रियादि पदमें एक भांगा, शेषमें तीन भांगे देव पदमें छ भांगे पावे, मान कषायी व माया कषायी में जीव पद व एकेन्द्रिय पद में एक भांगा. नारकी व में छ भांगे और शेष पद में तीन भांगे. लोभ कषायी क्रोध कषायी जैसे कहना. इसमें नरक में छ भांगे जानना. अकपायी के दूसरे दंडक के जीव, मनुष्य व सिद्ध में तीन भांगे पाते हैं औधिक मतिज्ञान व
श्रुतज्ञान के दूसरे
दंडक में नीवादि पद में तीन भांगे, विकलेन्द्रिय में छ भांगे. अवधिज्ञान का भी ऐसे ही जानना. परंतु
* यहां कोई प्रश्न करे कि सब पद जैसे क्रोध कपायी जीव में तीन भांगे क्यों न होवे ? मान माया व लोभ से निवर्तकर क्रोध कषाय को प्राप्त होने वाले जीव अनेक हैं इस से तीन भांगे न होवे.
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
७८६