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शब्दार्थ है व० बहुत क० कर्म व० वस्त्र पो० पुद्गल ५० प्रयोगसे वी० स्वभाव से सा० अदिसहित क० कर्म स्थिति
इ० स्त्री सं० संयति स० सम्यक् दृष्टि स० संज्ञी भ० भव्य दं० दर्शन ५० प्रर्याप्त भा० भाषक अ० अपरत ना ज्ञान जो० योग उ० उपयोग आ० आहारक सू० सूक्ष्म च० चरिम बं० बंध अ० अल्पाबहुत्व से० अथ णू . शंकादी भं• भगवन् म० महाकवाले म महा आश्रव वाले म० महाक्रिया वाले त० महा
बहुकम्म वत्थ पोग्गल पयोगसा वीससाय सादीए ॥ कम्मटिइत्थि संजय, सम्मदि
ट्ठीय सन्नीय ॥ १ ॥ भविए दसण पज्जत्त, भास अपरित्त नाण जोगेय ॥ उवओगा है हारग सुहम चरिमबंधेय अप्पबहुं ॥ २ ॥ से गुणं भंते ! महाकम्मस्स, महासवस्स।
महाकिरियस्स, महावेयणस्स, सव्वओ पोग्गला बझीत, सव्वओ पोग्गला चिजंति, भावार्थ है दूसरे उद्देशे में आहार का अधिकार कहा. आहारिक जीव सकर्मी होते हैं इसलिये कर्मबंध का सम्बन्ध
कहते हैं. जैसे आदि में स्वभाव से व प्रयोग से पुद्गलों एकत्रित होकर वस्त्र बनता है वैसे ही महाकर्म से पुद्गल का बंध करे, कर्म की स्थिति, स्त्री पुरुष कर्म का बंध करे, संयति, दृष्टिद्वार, संज्ञी, भवि, age दर्शन, पर्याप्त, भाषक परत, ज्ञान, जोग, उपयोग, आहारक, मूक्ष्म, चरिम, बंध व अल्पाक्दुत्व. अहो.. भगवन् ! स्थिति आदि की अपेक्षा से महाकर्मी, मिथ्यात्वादिक की अपेक्षा से महा आश्रवी, कायिकादि क्रिया से महा क्रियाबंत, और साता असाता रूप वेदना से महा वेदनावंत जीव को सब दिशी के
( भवगती ) सूत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति (
** छठा शतक का तीसरा उद्देशा
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