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शब्दाथ
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गो. गौतम स. श्रमण भ० भगवान् म. महावीर को वं० वंदना कर न० नमस्कार कर सं० संयम त. तप से अ० आत्मा को भा० भावते हुवे वि. विचरते हैं ॥ ४ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर रा ० राजगृह न० नगर से गु० गुणशीलक चे० चैत्य से प० निकले ५० निकलकर ब• बाहिर ज. अन्यदेश में वि० विचरने लगे ॥ ६॥ ते० उसकाल ते. उस समय में क० कयंगला ना० नामकी न. नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त ती० उस क• कयंगला न० नगरी की ब. बाहिर उ० ईशान
हीणेत्ति वत्तव्वं सिया. सेवं भंतेत्ति. भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसइत्ता, संजभेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ४ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे रायागहाओ नयराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणंसमएणं कयं
गला णामं नयरीहोत्था,वण्णओतीसेणं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए भावार्थ
और सब दुःख का क्षय करने से सर्व दुःख प्रहीन कहना. अही भगवन् ! आपने कहा सो सत्य है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ ४॥ उस समय में
श्री श्रमण भगवन्त महावीर राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में से नीकल कर अन्य देश 12 में विचरने लगे. ॥५॥ उसकाल उस समय में कयंगला नामक नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ सूत्र
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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