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शब्दार्थ
1 नि• डाले ता० तब भ० भगवन से उस पु. पुरुष को क० कितनी कि० क्रिया सि० कदाचित् ति० म तीनक्रिया सि• कदाचित् च० चारक्रिया सि. कदाचित् पं० पांचक्रिया से० वह के० कैसे गो० गौतम ।
जजा भ० योग्य उ० ऊंचा करने से ति तीन उ. ऊंचा करने से नि० डालने से नो० नहीं द.
जलाने से च० चार जे. जो० भ० योग्य उ० ऊंचा करने से नि० फेंकने से द० जलाने से से० उस "सत्र है, गणिकायसि निसिरइ तावंचणं भंते ! सेपुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! | सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । से केणटेणं ? गोयमा ! जे भवि
ए उस्सवणयाए तिहिं, उस्सत्रणयाएवि निसिरणयाएवि नोदहणयाए चउहिं, जेभविए । भावार्थ अहो भगवन् ! कोई पुरुष कच्छ में यावत् वनदुर्ग में तृणका ढग करके उन में अग्निकाय का प्रक्षेप करे
तो उन को कितनी क्रिया लगती हैं ? अहो गोतम ! उन को तीन, चार व पांच क्रियाओं लगती हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से उन को तीन, चार, व पांच क्रियाओं लगती हैं ? अहो गौतम ! जितना काल पर्यंत नृणका समुदाय एकत्रित करता है उतना कालतक उन को कायिकी. अधिकरणकी व प्रद्वे.षिकी ऐसी तीन क्रियाओं लगती हैं और तृण एकत्रित कर अशिमें जा पातु तक का
यिकी, अधिकरण की, प्रदेषिकी. व परितापलिकी ऐनी चार किया लगती हैं, पारा एकत्रित * करके अग्नि में डालता है और उस में जलता है उसको कायिकी आदि पांचों क्रियाओं लगती हैं.
-बालब्रह्मचारी मुनि श्री
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी*