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शब्दार्थ गो. गौतम दि० दीव्य अ० वर्षा के 40 बद्दल पा० उत्पन्न हुए त० तब से वह दि० दिव्य अ० वर्षा के है।
बहल खि० शीघ्र प० गर्ने वि० विद्युत् होवे ण. बहुल पानी नहीं णा० बहुल कर्दम नहीं ५० जलशीकर V२० रजरेणु वि० विनाशक दि० दीव्य स० सलिल उ० उदक व० वर्षा वा• हुई जे• जिस से ति.
तिलवृक्ष आ. स्थिर हुवा वी० विशेष स्थिर हुवा प० उत्पन्न हुवा ब० मूलबंधाया त तहां प० प्रतिस्थित म. सात ति• तिल पु० पुष्प जीव उ० चवकर त० तहां ति० तिलवृक्ष के ए० एक ति० तिलसिंग में
सलेड्यायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडेइत्ता एगैते एडेइ, एडेइत्ता तक्खणमेत्तं च गोयमा! दिव्वे अब्भवदलए पाउब्भूए, तएणं से दिव्वे अब्भवदलिए खिप्पामेव पतण तणाए खिप्पामेव विज्जुयाइ, खिप्पामेव पच्चीसगं णातिमटियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वसलिलोदगं वासं वाप्तइ ॥ जेणं से तिलथंभए आसत्थ वी
सत्थए पञ्चायाए बदमूले तत्येव पतिट्ठिए तेय सत्ततिलपुप्फजीवा उदाइत्ता २ तस्सेव 4 शनैः पीछा जाने लगा. और तिलस्तंभ को समूल मिट्टि सहित नीकाल कर एकान्त में डाल दिया. अहो गौतम ! तत्क्षण वहां दीव्य अभ्रवद्दल प्रगट हुवा. उस दीव्य मेघ से शीघ्र गौरव हुवा, विजलियों। चमकी, शीघ्र बहुत पानी की वर्षा हुई नहीं, बहुत कादव हुवा नहीं, पानी की कुंवार पडी, रजरेणु दवगइ,१४ दीच्य नदी के पानी जैसी वर्षा हुई, रसादिगुण सहित वह तिलस्थंभ स्थिर हुवा, बहुत स्थिर हुवा, उदय को
पंचमांग वहााव पण्णति (भगवती) सूत्र
पनरहवा शतक