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8 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
उस्सप्पिणीट्टयाए,. एसणं सुदंसणा ! अद्धा दोहारच्छेयणेणं छिजमाणा जाहे विभागं * णो हव्वमागच्छई सेत्तं समए ॥ समयट्टयाए असंखजाणं समयाणं समुदय समिति समागमेणं एगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए जाव तं सागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ एएहिणं भंते ! पलिओवम सागरोवमेहि किं पओयणं? सुदंसणा! एएहिं पलिओवम सागरोवमेहि णेरइय तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवाणं आउयाइं माविज्जति ॥ ११ ॥ णेरइयाणं
भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एवं ठिईपदं गिरवसेसं भाणियन्वं जाव अजभगवन् ! अद्धा काल किसे कहते हैं ? अहो सुदर्शन ! अद्धा काल के अनेक भेद कहे हैं जैसे समय, आवलिका, श्वासोश्वास, थोव, लव, मुहू, अहोरात्रि, पक्ष, मास, वर्ष यावत् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी. अहो, भुदर्शन ! छेदने से जिस के दो विभाग होवे नहीं उसे समय कहते हैं. संख्याते समय की एक आवलिका होती है, यों जैसे छढे शतक के सातवे उद्देशे में कहा वैसे ही जानना. यावत् दश क्रोडाक्रोड सागरोपम की एक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी होती हैं. अहो भगवन् ! इन पल्योपम सागरोपम का क्या प्रयोजन है? अहो सुदर्शन ! इन पल्योपम, सागरोपम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव का आयुष्य जाना जाता है ॥ ११ ॥
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ