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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
ज्ञानी मं० भगवन् म० मनुष्य जे० जो भः भव्य भ० भवग्रहण से सि० सिझते को जा० यावत् अं०अंत करने को ॥ ७ ॥ जे० जो अ० असंजी पा० प्राणी पु० पृथ्वीकाया जा० यावत् व० वनस्पति काया छ० छठा ए० कोई त म ए० ये अं० अंध मू० मूढ. त० अंधकार में रहे हुवे त० तम प० पडल
भंते! से खीणभोगी सेसं जह छउमत्थस्स ॥ केवलीणं भंते! मणूसे जे भविए लेणं चैव भवग्गहणेणं एवं जहा परमाहोहिए जाव महापजवसाणे भवइ ॥ ७ ॥ जे इमे भंते ! असण्णिणो. पाणा पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा एगइया तसा, एएणं अंधा मूढा लमप्पविट्टा, तम पडल मोहजाल पलिच्छण्णा, अक्रामनि करणं वेणं वेदतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! जे इमे असणिजो पाणा पुढवि
और इस तरह भोगों को त्यजते हुवे महा निर्जरा व महा पर्यवसान करते हैं. परम अवधि ज्ञानी जैसे केवल ज्ञानी का जानना ||७|| अहो भगवन् ! जो असंज्ञी पृथ्वीकायिक यावद, वनस्पति कायिक और अन्य कोई त्रत पाणी अंध, मूढ़, अंधकार में प्रविष्ट, ज्ञानावरणीय के पडल रूप मोहजाल से ढके हुबे हैं वे अकामनि करण वेदना वेदते हैं ऐसा क्या कहना ? हां गौतम ! अंध, मूढ, अंधकार में प्रविष्ट व ज्ञानावरणीय के पटल रूप मोहजाल से आच्छादित असंज्ञी पृथ्वी कायिक यात्रत् कोई त्रस प्राणी अकामनिकरण
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी
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