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शब्दार्थ मो० मोह जा. आल १० आच्छादित अ० अकामनिकरण वे वेदना वे० वैदे ॥ ८॥ ० है ०,
भगवन् प० समर्थ अ० अकामनिकरन वे वेदना वे० वेदे है० हां ० है क. कैसे भ० भगवन् ५० Y समर्थ अ० अकाम निकरण वे वेदना वे. वेदे गो० गौतम जे. जो नोक नहीं प० ममर्थ वि० विना प.
काइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा जाव. वेयणं वेदंतीति वत्तव्वंसिया ॥ ८ ॥
अस्थिणं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेइ ? हंता अत्थि । कहण्णं भंते ! पभू वि अकाम निकरणं वेयणं वेदेइ ? गोयमा । जेणं नो पभू विणा पदीवेणं अंधका रांसि रूवाइं पासित्तए जेणं णो पभूपुरओ रूवाइं अणिज्झाइत्ताणं पासित्तए, जेणं नो पभू
मग्गओ रूवाइं अणवयक्खित्ताणं पासित्तए, जेणं णो पभू पासओ रूबाइं अणुलोए भावार्थ वेदना वेदते हैं ॥ ८ ॥ अब बंजी का कहते हैं. अहो भगवन् ! संत्री जीव यथाविध रूपादि ज्ञान में 4.
समर्थ हैं तथापि क्या वे अकाम निकरण वेदना वेदते हैं ? हां भगवन् ! संजी जीव समर्थ होने पर E'अकाम निकरण वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! वे कैसे अकामनिकरण वेदना वेदते हैं ! अहो 90
गौतम ! जैसे संझी माणी संजीपना से हेयोपादेय रूप जानने को समर्थ हैं ताहंपि: अंधकार में दीपक विना रूप देखने को समर्थ नहीं है, दीपक होने पर भी आगे चक्षु का उपयोग किये बिना रूप देखने को समर्थ नहीं है, चक्षु का उपयोग होने पर चक्षु से विलोकन किये विना देखने को समर्थ नहीं है।
विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र
43892 सातवा शतकका सातवा उद्देशा
marwa