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शब्दार्थ
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अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
स० सात क कर्म प्रकृति लि. शिथिल बं० बंधन ब० बंधी हुई ए. ऐसे ज० जैसे ५० प्रथम शतक
संवृत अनगारका एक ऐसे लो० लोभवश से अ० परिभ्रपण करे ॥ २६ ॥ त. तब ते. वे स० श्रमणोपासक स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर की अं० पास से एक इस अर्थ सो० मुनकर मणि० अवधार कर भी० डरेहुचे सं० संसार भयसे उद्विग्न स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को व वंदन कर न० नमस्कार कर जे. जहां सं० शंख स० श्रमणोपासक ते. तहां उ० जावे उ० जाकर
परियइ ॥ माणवसट्टेणं भंते ! एवं चैव, एवं मायावसझेवि, एवं लोभवसद्देवि जाव अणुपरियदृइ ॥ २६ ॥ तएणं ते समोवासगा समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म भीया तत्था तसिया संसारभयुविग्गा, समणं
भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमांसत्ता, जेणेव संखे समणोवासए तेणेव शंख ! क्रोध में वर्तनेवाला जीव आयुष्य छ डकर सात कर्म प्रकृतियों यदि शिथिल बंधवाली होवे तो दृढ बंधवाली करता है वगैरह यावत् प्रथम शतक में असंवति साधु के अधिकार में जैसा कहा वैसा सब जानना यावत् अनंत संसार परिभ्रमण करे वहां तक जानना जैसे क्रोध का कहा वैसे ही मान माया व लोभ का कहना ॥ २६ ॥ श्रमण भगवंत महावीर सामी की पास ऐसा सुनकर वे श्रमणोपासक भय भीत हुए. त्रसित हुए, मन में उद्वेग उत्पन्न हुचा संसार भय से उद्वेग पामे और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *.
भावाथा