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है ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं फ्याहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु भंते ! भए
तुभं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासाइए जाव तं भदणं भवतु देवाणुप्पियाणं जस्समि पभावेण आकिटे जाव विहरामि. तं खामेमि णं देवाणुप्पिया जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ अवकमइत्ता जाव वत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदसेइ उबदंसेइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णो सा दिव्वा देविट्ठी लढा पत्ता अभिसमण्णागया, ठिई
सागरोवम, महाविदेहे वासे लिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ॥४२॥ किं पत्तियणं भंते ! भावार्थ - शोक वृक्ष की नीचे पृथ्वी शीला पटपर मेरी पास आया और मुझे वंदना नमस्कार कर ऐसा कहा अहो,
भगवन् ! आपकी नेश्राय से मैं शक्र देवेन्द्र की आमासना करने को गया यावत् आपका कल्याण होवो कि आप के प्रभाव से मैं बाधा पीडा रहित फोरता हूं. इस से अहो देवानुप्रिय ! आप की मैं क्षमा org चाहता हूं यावत् ईशान कौन में गया और बत्तीस प्रकार के नाटक बताकर जिस दिशा से आया था उनी दिशा में गया. इस तरह अहो गौतम : चमर असुरेन्द्र को ऐसी दीव्य देवद्धि प्राप्त हुई है. स्थिति
म की है और महा विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होवेगा यावत सब दुखों का अंत करेगा॥४२॥
पण्णत्ति ( भंगवती ) सूत्र
तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा*