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4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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जाव वणस्सइ काइयाणं ॥ १॥ अपजत्त सुहुम पुढवि काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्टकम्म पगडीओ प० तंजहा-णाणवरणिजं जाव अंतराइयं ॥ पजत्त सुटुम पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडिओ पण्णताओ ? गायमा ! अट्टकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णाणावरणिजं जाव अंतराइयं ॥ अपजत्त वादर पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्मा पगडीओ पण्णताओ ? गोयमा ! एवं चेव ॥ पजत्त वादर पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ प. एवं चेत्र ॥ एवं एएणं कमेगं जाव वायर वणस्सइ काइयाणं अपज्जताणंति ॥ २ ॥ अपजत्त
पृथ्वीकाया के दो भेद-पर्याप्त व अपर्याप्त. यों अप्काय यावत् वनस्पतिकाया पर्यन्त सब के चार २ भेद कहना ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त भूक्ष्म पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कई: ? अहो गौनम ! आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. जिन के नाम ज्ञानाबरणोय यावत् अंनराय. अहो भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय यों आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. अहो भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कहीं ? अहो गौतम! वैसे ही आठही कहना. पर्याप्त बादर पृथी काया का वैसे ही आठ कहना. यों बादर वनस्पति काया पर्यंत
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वाला प्रसादजी.
भावार्थ
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