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शब्दार्थ * {ए० ऐसे पु० पृथ्वी काया स० सर्व ठा० स्थान में अ० अभंग न० विशेष ते तेजु लेश्या मैं अ० अस्मी भांगा आ० अकाय ते-तेजकाय वाव्वाय काया ससर्व ठा० स्थान अ० अभंग व वनस्पति काया ज जैसे पु०पृथ्वी काया ||१२||३० बेइन्द्रिय ते ० तइन्द्रिय च ० चतुरेन्द्रिय जेजित स्थान में ने ० नारकी को अ अस्मी भांगा ते० उस स्थान में अ अस्सी न० विशेष अ० ज्ञान स० सम्यक्त्व में आ मतिज्ञान सु० श्रुत सत्रवि ठाणे अभंगयं । नवरं तेउलेस्साए असीइभंगा ॥ एवं आउकाइयावि ॥ तेटकाइया, वाउकाइयाणं सव्वेसुवि ठाणेसु असंगयं । वणफइकाइया जहा पुढविकाइया ||१९|| बेइंदिय तादय चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइंचेत्र. णवरं अब्भहियासम्मत्ते ॥ आभिणेिोहियनाणे सुयनाणे एएहिं तेजोलेश्या ज्यादा कहा ऐसे ही अकाय का अधिकार जावना तेडकाय व वायुकाय में दशद्वार पर अभंग जानना क्यों कि इनमें काधादि कषायवाले कहत जीव हैं और देवता आकर उत्पन्न नहीं होते हैं. वायुकाय में शरीर चार कहना उहारिक, वैक्रेय, तेज व कार्माण, वास्पति काय का { पृथ्वी काय जैने कहा || १२ || जिस स्थान नरक में अस्सी भांग कहे हैं उस स्थान पर बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में भांग जादा नरक में एकादि ने संख्यात समय अधिक तक जवन्य *जो देवगति में से देवता पत्रकर पृथ्वीकार्य में एक या अनेक उत्पन्न होते हैं इससे उनको अस्तीभांगेपाते हैं.
सूत्र
भावार्थ
अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायजी जालाप्रसादजी *
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