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शब्दार्थ
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आ० आवास स० शत सहस्र जा० यावत् वि. विचरते हैं म० महर्दिक जा० यावत् म. महा सुखी स० शक्र दे. देवेन्द्र से वह ए. ऐसे भ० भगवन् ॥ १० ॥ ६॥ + + क• कहां भ० भगवन् उ० उत्तर के ए० एकरूक म० मनुष्य के ए० एकरूकद्वीप प० प्ररूपा ए. ऐसे जाव महेसक्खे, सक्के देविंदे देवराया ॥ सेवं भंते, भंतेत्ति ॥ दसम सयस्स छ8ो । उद्देसो सम्मत्तो ॥ १०॥ ६॥ x
x x कहिण्णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगुरुय मणुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पण्णते? एवं
सूत्र 488 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती :
433 दशवा शतक का छठा उद्देशा 438
भावार्थ
निक देव हैं, तेतीस त्रायत्रिंशक देव हैं आठ अग्र महिषियों यावत् बहुत देव देवियों का पालन करते हुवे । विचरते हैं, इस प्रकार महा ऋद्धिवंत यावत् महा ऐश्वर्यवंत शक्र देवेन्द्र देव राजा रहा हुवा है. अहो । भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह दशमा शतक का छठा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ १० ॥ ६॥ १ छढे उद्देशे में देव सभा का कथन किया. जुगलिये देवलोक में उत्पन्न होते हैं इसलिये यगलियों .
का वर्णन करते हैं. अहो भगवन् ! उचर दिशा के एक रूक मनुष्यों का एक रूक द्वीप कहां है ? अहो, गौतम ! इन अठाइम अंतर द्वीप का वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानना. यावत् अठावीसवा शुद्धदंत, द्वीप तक का अधिकार पहिले चुल्लहिमवंत पर्वत के अठावीस उद्देशे कहे वैसे ही यहां शिखरी पर्वत के ?'