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शब्दार्थ |
भावार्थ
{ जा० यावत् अ० अभिषेक रा० राज्यधानी त० तैसे जा० यावत् पा० प्रासादपंक्ति ॥ ८ ॥ स शक्र के ज० यम के ई०ये देवदेव आ० आज्ञा उ० उपपात जा०यावत् चि०रहे ज०यम के परिवार ज०यम के सामानिक के परिवार अ० असुर कुमार अ० असुर कुमारी कं० कंदर्प नि० नरक रक्षक अ० अभियोग जे. जो अ० अन्य त० तथा प्रकार स० सर्व ते ० वे ॥ ९ ॥ जं० जंबूद्रीप के मं० मेरु की दा० दक्षिण में विमाणं तहा जाव अभिसेओ रायहाणी तहेव जाव पासायांतीओ ॥ ८ ॥ सक्करसणं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा आणा. उववाय जाव चिट्ठति, तंजहा- जमकाइयाइवा, जमदवयकाइयाइवा, पेयकाइयाइवा, देवकाइयाइवा, असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा निरयपाला, अभियोगा, यावणे तहप्पगारा, सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया, सक्करस देविंदरस देवरण्णो जमस्स महारण्णो ॥ ९ ॥ जंबूद्दीवेदीवे मंदररस पव्वयस्स दाहिणेणं जाई विमान जैसे कहना ॥ ८ ॥ यम कायिक, यमदेव कायिक, प्रेत कायिक, प्रेतदेव कायिक, असुर कुमार, असुर कुमार की देवियों, कंदर्प, नरकपाल, अभियोगिक-सेवक और भी ऐसे अन्य देव यम महाराजा की {आज्ञा, निर्देश व उपपात में रहते हैं, वैसे ही वे उन का पक्ष धारन करते हैं, और उन की भार्या की { समान सेवा करते हैं ॥ ९ ॥ जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण में विघ्न, एक राजकुमारादिकृत उपद्रव,
409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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