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शब्दाथ
12 अनुवादक- ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 80%
गो. गौतम स. शक्रेन्द्र दे० देवेन्द्र दे. देवराजाम महाक जा. यावत् म. महानुभाग ब. बत्तीस वि० विमान स• लक्ष च० चौरासी सा० सामानिक सा. सहस्र जा. यावत् च. चार च० चौरासीम आ० आत्मरक्षक सा० सहस्र अ अन्य जा. यावत् वि. विचरते हैं ॥१३॥ ज. यदि भं. भगवन् १ स शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा म. महाक जा. यावत् प० समर्थ वि. विकुर्वणा करने को दे देवानुपिय का अं० अंतेवासी ती. तिष्यक अ० अनगार प० प्रति भद्रिक जा. यावत् वि. विनीत छ ।
सामाणिय साहस्तीणं, जाव चउपहं चउरासीणं आयरक्खदेवं साहस्सीणं अण्णसिंच जाब विहरइ, ए महिढीए, जाव केवइयं चणं पभू विकुवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, णवरं दोकेवलकप्पे जंबूद्दीवे दीवे, अवसेसं तंचव एसणं गोय. मा ! सक्करस देविंदस्स देवरो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए णो चेवणं संपत्तीए, विकुविसुवा, विकुव्वइवा, विकुव्विस्संतित्रा, ॥ १३ ॥ जइणं. भंते ! कहना परंतु बहुत देव देवियों के रूप व अन्य अनेक प्रकार के रूप से दो जम्बूद्वीप संपूर्ण भर देवे इतनी शक्ति है परंतु संपत्ति नहीं है. ऐसा किसीने किया नहीं है, करते नहीं हैं और करेंगे भी नहीं ॥ १३ अहो भगवन् शक्रेन्द्र ऐसी ऋद्धिवाले यावत् इतना वैक्रेय रूप करने को शक्तिवंत. हैं तब आपका अंतेवासी प्रकृतिभद्रिक यावत् विनीत निष्यक नामक अनगार निरंतर छउ छठ के तप से आत्मा को भारते हुवे ।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी घालाप्रसादनी
भावार्थ