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शब्दार्थ |
भावार्थ
२३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
प० प्रथम स० संज्ञी गर्भ में जी० जीव प० उत्पन्न होने से वह त० वहां से अ० अनंतर उ० उद्ववर्त कर मं० मध्य के मा० मानस सं० संजूह देव देव में उ० उत्पन्न होवे से० वह त० वहां दि० दीष्य पो० भोगोपभोग जा० यावत् वि० विचर कर ता० उस दे० देवलोक से आ० आयुष्य क्षय से जा० { यात्रत् च० छोड कर दो० दूसरा स० संज्ञी गर्भ जी० जीव प० उत्पन्न होवे से० वह त० उस से अ० अंतर रहित उ० उद्वर्तकर दे० नीचे के मा० मानस सं० संजूह दे० देव उ० उत्पन्न होत्रे से० वह त० वहां दि० दीव्य जा० यावत् च० चवकर त० तीसरा स० संज्ञी गर्भ में जी० जीव प० उत्पन्न होवे पढमे साण्णगन्भे जीवे पच्चायाति से णं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता मज्झिले मासे संजू देवे उववज्जइ, से णं तत्थ दिव्वाइं भोगभोगाई जाव विहरिता ॥ ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं २ जाव चइता दोचे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति, सेणं तओहिंता अनंतरं उव्वट्टित्ता हेट्ठिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्जइ, से णं तत्थ दि} उपर के मानस संजुह में उत्पन्न होवे. गंगादिककी प्ररूपना से सरमपाण आयुष्य युक्त संजुह काय के देवता में ( उत्पन्न होवे. यह प्रथम दीव्य भव. वहां दीव्य प्रधान देवयोग्य भोग भोगवते विचरकर वहां का आयुष्य भव व स्थिति का क्षय होने से अंतर रहित चवकर प्रथम संज्ञी के भव को प्राप्त होवे. वहां से अंतर रहित नीकलकर बीच का मानस प्रमाण आयुष्यवाला संजुह की काया में देवतापने उत्पन्न होवे. और वहां दीव्य
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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