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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋपिजी
टक ग० ग्रहा का अ० बद्दल होवे अ० बद्दल के वृक्ष होवे सं० संध्या होवे गं० गंधर्व नगर होवे उ० उल्का पात होवे दि० दिशा में दाह होवे ग० गर्जना वि。विजली होवे पं० धूलकी बु० वर्षा होवे जुटबाल चंद्र ज० व्यंतर से अभिध धूसर मं० महिका र दिशाका रजस्वलपना चं चंद्रका ग्रहण सू० सूर्य का उ० उपराग { बं० चंद्र परिवेष सू० सूर्यपरित्रेष प०प्रतिचंद्र प• प्रतिसूर्य ई० इंद्र धनुष्य उ० बहुत इंद्रधनुष्य के खण्ड क ० कपिहसन लाइवा, गहगजियाइवा, एवं गहजुदाइवा, गहसिंघाडगाइवा, गहावसच्चाइबा, अभ क्वाइवा, अग्भाइवा, संझाइवा, गंधव्यनगराइबा, उक्कापायाइवा, दिसादाहाइवा, गजियाइवा, विजुयाइवा, पंसुकुट्टीइवा, जवजमखालित्तय धमियमहिम रउग्घाय, चरागाड्या, सूरोवरागाइवा, बंद परिवेसाइवा, सूरपरिवेसाइवा, पडिचंदावा, पडिराइवा, इंदधणूबा उदगमच्छक इहसियअमोह पाईणबायाइवा, पडण ग्रह चलने से मेघ समान गर्जना होवे, एक नक्षत्र में दक्षिण उत्तर श्रेणि के ग्रह का रहना सो ग्रह युद्ध होवे, (शृंगाटक के आकार से ग्रह होने, ग्रह पीछे जावे, बद्दल होवे, वृक्षाकार बद्दल होवे, संध्या फूले, आकाश { में व्यंतर के बनाये हुवे नगर होवे, उद्योत सहित ताराओं का पडना ऐसा उल्कापात होत्रे, दिशाओं में रक्तपीत समान रंगवाला दाह वे. संघादिक की गर्जना होवे विद्युतका उद्योत होत्रे,रजोवृष्टि होवे, प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया के दिन भी चंद्र रहे वहां लग संध्या फूली हुई रहे, व्यंतरोंने किया हुवा अनि आकाशमें रहे, धूंअर पडे,
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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