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१० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
में है. हां मं० मंडितपुत्र जी. जीव स० सदैव ए. कंपे जा. यावत् १० परिणमे ॥९॥ जा० जितना भ० भगवन् जी०जीव सासदैव जायावत् प०परिणमता ता० उतना त उस जीव की अं• अंत में अं०१ अक्रिया भ० होवे णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से. वह के० कैसे भं• भगवन् मं० मंडितपुत्र जा० जितना से वह जी० जीव स० सदैव जा० यावत् प० परिणमे ता० उतना से वह जी० जीव आ. आरंभ करे सा० सारंभ करे स. समारंभ करे आ० आरंभ में व. वर्ते सा. सारंभ में व. वर्ते
भावं परिणमइ ? हंता मंडियपत्ता ! जीवेणं सयासमियं एयइ जाव तंतं भावं परिणमइ ॥ ९ ॥ जावंचणं भंते ! से जीवे सयासमियं जाव परिणमइ तावंचणं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ ? णोइणटे सम? ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ, जावंचणं से जावे सयासमियं जाव अंते अंतकिरिया न भवइ ? मंडियपुत्ता ! जावं
चणं से जीवे सयासमियं जाव परिणमइ तावंचणं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समाउदीरे वगैरह पूर्वोक्त भावों में परिण? हां मण्डित पुत्र ! सयोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त चलता है, यावत् पूर्वोक्त भावों में परिणमता है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जहां लग सयोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त चलता है यावत् पूर्वोक्त भावों में परिणमता है वहां लग क्या उन को अंत क्रिया होती है ! यह अर्थ न योग्य नहीं है. किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो मण्डित पुत्र ! जहां लग सयोगी जीव
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ