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शब्दार्थ यावन् उ० जाकर उ० उदायी ह हस्तिपे दु० आरूढहुवे ॥ ४ ॥ त० तब से वह कू. कणिकराजा ।
जा. यावत् से श्वत चा चामरसे उ० ऊंचाकराया ह० अश्व ग० गज र० रथ प० प्रधान जो योध} | 09कयुक्त चा चतुरंगिनी से सेना स०साथ प० परिवृत म०बडे भ० भट च० विस्तार विवृदसे प० परिव्रत ।
जे. जहां म० महाशिला कंटक सं० संग्राम ते० तहां उ० आकर म. महाशिला कंटक सं० संग्राम उ० आया पु० आगे से वह स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा ए० एक म. बडा अ० अभेध क.
उवागच्छित्ता उदाइं हरिथरायं दुरूढे ॥ ४ ॥ तएणं से कृणिए राया जाव सेयवरचामराहिं उडुब्वमाणीहिं २ हयगथरह पवर जोह कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं परिवुडे महयाभडचडगांवंद परिक्खित्ते जेणेव महासिला कंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, महासिलाकंटगं संगाम उयाए । पुरओय से सक्के देविंदे
देवराया एगं महं अभेजकवयं वइरपडिरूंवगं विउव्वित्ताणं चिट्ठइ ॥ एवं खलु भावार्थ
प्रकार की शोभा करते हुए उदाइ नामक हस्तीराज पर कूणिकराजा आरूढ हुवे ॥४॥ हारों से आच्छादित वक्षःस्थ90लवाले कूणिक राजा श्वेत चामरों से वीजाते हुवे अश्व, गज, रथ व पादात्य की चतुरंगिणी सेना से
परिवृत व बडे २ भट सुभटों से रक्षित महाशीला कंटक संग्राम में. आये. उस समय में शक्र देवेन्द्र एक बडा अभेद्य वज्र प्रतिरूपक कवच की विकुर्वणा करके खडे रहे. उस समय में देवेन्द्र सो शक्र व मनुष्येन्द्र है।
4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र
48 सात शतकका नववा उद्देशा
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