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14 इ० इस र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी में या० बादर अ० अग्निकाय गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० है ।
समर्थ ण नहीं अ० अन्यत्र वि० विग्रहगति स० प्राप्त ॥ ६॥ अ० है भं. भगवन् इ० इस र० रत्नप्रभा • पृथ्वी में चं चंद्रमा जा. यावत् ता. तारारूप नो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ ॥ ७॥ अ. है
८३७ भ० भगवन् इ० इस र. रत्नप्रभा में च. चंद्रकाति नो० नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ॥ ८॥ ए. ऐसे दो दूसरी पु० पृथ्वी में भा० कहना ए• ऐमे त० तीसरी में भा० कहना ण विशेष दे० देव ५० करे
प्पभाए पुढवीए बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! णो इणटे समढे णण्णत्थ विग्गह गइसमावण्णएणं ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए चदिम जाव तारारूवा ? नो इण? समटे ॥ ७ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए
चंदाभाइवा २ ? णो इणढे समट्टे ॥८॥ एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियन्वं ॥ एवं तच्चाभावार्थ
में क्या बादर अग्निकाय है ? अहो गौतम ! वहां वादर अग्निकाय नहीं है. परंतु क्वचित् विग्रहगतिवाले
बादर अग्निकाय के जीव वहां जाते हैं ॥ ६॥ अहो भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी में चंद्र, सूर्य 5 यावत् तारे रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥ ७॥ क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी में
* चंद्र मूर्य की कान्ति है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥ ८ ॥ जैसे पहिली पृथ्वी का कहा 1 वैसे ही दूसरी व तीसरी का जानना. परंतु दूसरी व तीसरी में देव व असुर ही मेघ व स्थनित शब्द।।
1843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र <agran
3.84.28छठा शतक का आठवा उद्देशा